द भ्रमजाल में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज यहां हम अपनी पुनर्कल्पना में शिक्षा प्रणाली के द्वितीय भाग की चर्चा कर रहे। हम उस दौर में प्रवे...
हम उस दौर में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ शिक्षा की पारंपरिक परिभाषाएँ तेजी से टूट रही हैं। संस्थागत दीवारों के भीतर बंद, समय-सारणी और पाठ्यक्रम में बंधी हुई शिक्षा अब बच्चों की जिज्ञासाओं को पूरा नहीं कर पा रही। बड़े-बड़े स्कूल भवन, लंबी प्रवेश प्रक्रियाएं, भारी फीस, और बच्चों को घंटों बसों में घसीटती व्यवस्था – यह सब उस दुनिया के लिए था जो अब पीछे छूट रही है। आज के बच्चों को सिखाने के लिए, उनके भीतर की संभावनाओं को खोजने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमें शिक्षा को उनके और समाज के करीब लाना होगा। इसी संदर्भ में ‘कम्युनिटी स्कूल’ की कल्पना आज की आवश्यकता बन जाती है।
यह महज़ कल्पना नहीं है। जिस तरह आज हाउसिंग सोसाइटियाँ मिनी-टाउनशिप की तरह बनती हैं, जहाँ किराने की दुकान, क्लिनिक, जिम, पार्क और बैंक जैसी सुविधाएँ मौजूद होती हैं, उसी तरह आने वाले वर्षों में इनमें छोटे, सुलभ और लचीले स्कूल भी अनिवार्य अंग बन सकते हैं। ये स्कूल अपार्टमेंट के कम्युनिटी हॉल में, किसी ग्राउंड फ्लोर यूनिट में या छत पर बने बहुउद्देशीय कक्ष में चल सकते हैं। ये न तो बड़े भवनों वाले स्कूल होंगे, न ही घंटियों और अनुशासनात्मक घोषणाओं से संचालित होंगे। इनका स्वरूप बेहद लचीला, समावेशी और बाल-केंद्रित होगा।
कम्युनिटी स्कूल की अवधारणा दरअसल बहुत स्वाभाविक है। मानव सभ्यता में शुरुआती शिक्षा हमेशा समुदाय के भीतर ही होती थी। बच्चे अपने परिवार, कबीले, या गाँव में बुज़ुर्गों, कलाकारों और कारीगरों से सीखते थे। गुरुकुल, मदरसे, और प्राचीन शिल्प प्रशिक्षण केंद्र भी एक प्रकार के कम्युनिटी स्कूल ही थे, जहाँ शिक्षा जीवन और श्रम से जुड़ी होती थी। आधुनिक समय में यह परंपरा खो गई और शिक्षा एक केंद्रीकृत, मानकीकृत प्रणाली में बदल गई, जहाँ हर बच्चे को एक जैसे ढाँचे में ढालने की कोशिश की गई। लेकिन अब वह प्रणाली स्वयं अपने बोझ से चरमराने लगी है।
कम्युनिटी स्कूल इस टूटन का रचनात्मक उत्तर हो सकते हैं। वे न केवल शिक्षा को विकेंद्रित करते हैं, बल्कि बच्चों को अपने समुदाय से जोड़ते हैं। जब बच्चा अपने ही सोसायटी में स्थित स्कूल में जाता है, तो स्कूल कोई भवन नहीं, बल्कि उसका सामाजिक और भावनात्मक विस्तार बन जाता है। वह शिक्षक को सिर्फ पढ़ाने वाले के रूप में नहीं, बल्कि पड़ोसी, मार्गदर्शक और कभी-कभी साथी के रूप में देखता है। यह रिश्ता औपचारिक नहीं, जीवंत होता है। बच्चे अपनी प्राकृतिक जिज्ञासाओं के साथ वहाँ आते हैं, और शिक्षक भी मानवीय परिवेश में, बिना दबाव के पढ़ा पाते हैं।
इन स्कूलों में शिक्षक केवल पारंपरिक बीएड डिग्रीधारी लोग नहीं होंगे। कोई रिटायर्ड प्रोफेसर, कोई होममेकर जो किसी विषय में दक्ष है, कोई युवा जिसने ऑनलाइन कोडिंग कोर्स किया है, सभी इस कम्युनिटी में भागीदार हो सकते हैं। हर व्यक्ति जो कुछ जानता है, उस ज्ञान को बाँटने के लिए आमंत्रित होगा। एक तरह से ज्ञान का आदान-प्रदान अब संस्थागत अनुमति से नहीं, सामाजिक जरूरत और सामूहिक भावना से संचालित होगा। यह 'हर व्यक्ति शिक्षक है, हर जगह कक्षा है' जैसे विचार को मूर्त रूप देगा।
इस मॉडल की खूबसूरती यह है कि यह सिर्फ बौद्धिक शिक्षा तक सीमित नहीं रहेगा। कम्युनिटी स्कूलों में बच्चों को बागवानी, खाना पकाना, सिलाई, चित्रकला, संगीत, नृत्य, यहाँ तक कि स्थानीय इतिहास और सामुदायिक सेवा के भी अवसर मिलेंगे। यह शिक्षा प्रतिस्पर्धा के लिए नहीं, जीवन के लिए होगी। बच्चे सिर्फ अच्छे मार्क्स लाने के लिए नहीं, बल्कि अच्छा इंसान बनने के लिए सीखेंगे। वे अपने ही पड़ोस में बुज़ुर्गों की मदद करना, पार्क की सफाई करना या किसी सामुदायिक आयोजन में भाग लेना भी सीखेंगे। इस तरह शिक्षा फिर से सामाजिक बन जाएगी।
तकनीक इस मॉडल की रीढ़ बनेगी, लेकिन सहायक भूमिका में। AR/VR आधारित अनुभव, ऑनलाइन पाठ्यक्रम, और AI-पावर्ड ट्यूटर जैसे उपकरण शिक्षक और छात्रों दोनों को सशक्त बनाएंगे। कल्पना कीजिए कि एक बच्चा अपनी कम्युनिटी स्कूल में विज्ञान का पाठ पढ़ रहा है और वहाँ एक VR हेडसेट से वह सूर्य के केंद्र में जाकर फ्यूज़न रिएक्शन देख पा रहा है। या एक बच्ची जो इतिहास पढ़ रही है, वह डिजिटल साउंडस्केप्स के ज़रिए 1857 की गूंजों को सुन पा रही है। यह सब संभव है, और निकट भविष्य में यह आम बात होगी।
इस मॉडल की एक और खूबी यह होगी कि इसमें परीक्षा का दबाव नहीं होगा। आकलन प्रोजेक्ट्स, प्रस्तुतियों, समूह कार्य और व्यवहारिक प्रदर्शन पर आधारित होगा। बच्चे स्कूल में जो कुछ भी सीखेंगे, उसे जीवन में लागू करना सीखेंगे—चाहे वह भाषा हो, तर्कशक्ति हो, या सौंदर्यबोध। यह सीखना रटने और दोहराने से नहीं, बल्कि करने और जीने से आएगा।
कम्युनिटी स्कूल का यह मॉडल विशेष रूप से भारत जैसे विविध और जनसंख्या-घनत्व वाले देश में बहुत उपयुक्त है। जहाँ हर शहर, हर कॉलोनी, हर गाँव में बच्चों की संख्या अधिक है और संसाधन सीमित हैं, वहाँ छोटे-छोटे, कम लागत वाले लेकिन उच्च गुणवत्ता वाले शैक्षणिक केंद्र न केवल व्यवहार्य हैं बल्कि अत्यंत प्रभावशाली भी हो सकते हैं। इससे शिक्षा का विकेंद्रीकरण होगा, और निजी स्कूलों के एकाधिकार को चुनौती मिलेगी। एक आम परिवार अपने ही परिसर में अपने बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिला सकेगा, बिना प्रवेश परीक्षा, भारी फीस और लंबी बस यात्राओं के।
सरकारी नीतियों को भी इस दिशा में बढ़ना होगा। अगर सरकारें सोसाइटियों में स्कूल खोलने के लिए प्रोत्साहन दें, नियमन में लचीलापन दें और डिजिटल संसाधन उपलब्ध कराएँ, तो यह मॉडल तेज़ी से अपनाया जा सकता है। इसके लिए बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर की ज़रूरत नहीं है, बल्कि सामुदायिक भावना, तकनीकी पहुंच और वैकल्पिक सोच की ज़रूरत है। यह केवल शिक्षा की सुविधा नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का माध्यम भी बन सकता है। जब एक समाज अपने बच्चों की शिक्षा की ज़िम्मेदारी अपने हाथों में लेता है, तो वह केवल ज्ञान नहीं, आत्मनिर्भरता और लोकतांत्रिक भावना भी विकसित करता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि बड़े स्कूलों और विश्वविद्यालयों की अपनी भूमिका होती है, विशेष रूप से उच्च-स्तरीय अनुसंधान और विशेषज्ञता के लिए। लेकिन प्रारंभिक शिक्षा का क्षेत्र वह है जहाँ सबसे अधिक इनोवेशन, सबसे अधिक प्रयोग और सबसे अधिक मानवीय हस्तक्षेप की ज़रूरत है। कम्युनिटी स्कूल इस शून्य को भर सकते हैं और एक ऐसा भविष्य गढ़ सकते हैं जहाँ शिक्षा सुलभ, सामाजिक और सार्थक हो।
यह बदलाव धीरे-धीरे होगा, लेकिन इसका प्रभाव गहरा होगा। जब हज़ारों सोसाइटियों में लाखों छोटे स्कूल पनपेंगे, तो शिक्षा का चेहरा ही बदल जाएगा। तब न तो किसी को स्कूल के लिए शहर छोड़ना पड़ेगा, न ही बच्चा अपने ही परिवेश से कटेगा। स्कूल समाज का हिस्सा बनेगा, और समाज स्कूल का। शिक्षा केवल प्रणाली नहीं रहेगी, वह फिर से जीवन का हिस्सा बन जाएगी, जैसे वह हमेशा से होना चाहिए थी।
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