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शिक्षा प्रणाली की पुनर्कल्पना - (तृतीय भाग)

द भ्रमजाल  में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज यहां हम अपनी  पुनर्कल्पना में  शिक्षा प्रणाली के तृतीय भाग की चर्चा कर रहे। जब हम शिक्षा के भवि...

द भ्रमजाल में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज यहां हम अपनी पुनर्कल्पना में शिक्षा प्रणाली के तृतीय भाग की चर्चा कर रहे।

जब हम शिक्षा के भविष्य की कल्पना करते हैं, तो हमारे सामने अक्सर स्कूल, कॉलेज या डिजिटल मंचों की छवियाँ आती हैं। लेकिन आने वाला समय इन सभी से कहीं आगे जाने वाला है। वह समय हमारे दरवाज़े पर नहीं, हमारे ड्राइंग रूम में दस्तक दे रहा है, क्योंकि शिक्षा धीरे-धीरे घर के भीतर लौट रही है। यह केवल महामारी की देन नहीं है, बल्कि तकनीकी, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों से उत्पन्न ऐतिहासिक भौतिकवादी प्रक्रिया है। अब समय आ गया है कि हम इसे अस्थायी विकल्प मानने के बजाय, नई स्थायी व्यवस्था के रूप में स्वीकार करें। शिक्षा का आवासीकरण, यानी घर का स्कूल बन जाना, अगली बड़ी छलांग है, जो न केवल बच्चों को नए तरह से सिखाएगी, बल्कि पूरे समाज के सोचने और जीने के ढंग को भी बदल देगी। ‘आवासीकरण’ शब्द मैंने गढ़ा है, ताकि उस प्रवृत्ति को नाम दिया जा सके जिसमें शिक्षा, काम और जीवन की सार्वजनिक गतिविधियाँ धीरे-धीरे निजी निवासों में सिमटती जा रही हैं। इसका कोई अन्य बेहतर नाम भी सुझाया जा सकता है।

पारंपरिक रूप से घर हमेशा से शिक्षा की पहली पाठशाला रहा है। बोलना, चलना, खाना, शिष्टाचार, भाषा, भावनाएं; इन सभी की पहली शिक्षा हमें घर में ही मिलती है। लेकिन औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली और फिर आधुनिक औद्योगिक स्कूल-व्यवस्था ने इस भूमिका को धीरे-धीरे घर से छीन लिया। शिक्षा अब घर से बाहर की चीज़ मानी जाने लगी, और माँ-बाप की भूमिका केवल स्कूल फीस देने और होमवर्क चेक करने तक सिमट गई। इस दूरी ने बच्चों को घर और स्कूल के बीच बाँट दिया; दो दुनियाओं में जीता हुआ विच्छिन्न बालक, जो न पूरी तरह घर का रहा न पूरी तरह शिक्षित।

अब यह दीवार टूट रही है। टेक्नोलॉजी, विशेष रूप से स्मार्टफोन, टैबलेट, इंटरनेट और AI-आधारित लर्निंग टूल्स ने यह संभव बना दिया है कि कोई भी घर शिक्षा केंद्र में बदला जा सके। ऑनलाइन कोर्स, वर्चुअल क्लासरूम, यूट्यूब, शैक्षिक ऐप्स, और सैकड़ों ओपन-सोर्स संसाधन अब हर घर की पहुँच में हैं। इससे न केवल होम-स्कूलिंग की अवधारणा को बल मिला है, बल्कि एक पूरा नया लर्निंग कल्चर उभरा है, जहाँ पढ़ाई किताबों और घंटियों से नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की जिंदगी से होती है।

इस नए मॉडल में माँ-बाप की भूमिका मौलिक रूप से बदल जाती है। वे अब केवल पालक नहीं, सह-शिक्षक बन जाते हैं। बच्चा जब किसी गणित की अवधारणा को नहीं समझता, तो पिता उसे खाना बनाते समय माप और अनुपात के जरिए समझा सकता है। जब बच्ची इतिहास के किसी हिस्से में रुचि लेती है, तो माँ उसे परिवार की कहानियों से जोड़ सकती है। दादा-दादी पुराने लोकगीतों, परंपराओं और जीवन के अनुभवों से सांस्कृतिक समझ विकसित कर सकते हैं। इस तरह शिक्षा अब सामूहिक पारिवारिक क्रिया बन जाती है, जिसमें हर सदस्य का योगदान होता है।

यह प्रणाली बच्चों के स्वाभाविक विकास के अनुकूल है। स्कूलों की तुलना में घर अधिक लचीला, कम तनावपूर्ण और बच्चे की गति के अनुकूल होता है। बच्चा अपनी रुचि और रफ़्तार के अनुसार सीख सकता है, और उसका आकलन अंक या ग्रेड से नहीं, बल्कि जीवन में उसके निर्णयों और समझ से किया जा सकता है। यह शिक्षा प्रतियोगिता के लिए नहीं, जीवन के लिए होगी।

यह भी आवश्यक है कि हम इस मॉडल को केवल संपन्न वर्ग की सुविधा न मानें। अक्सर होमस्कूलिंग को विशेषाधिकार माना जाता है, जो केवल उच्चवर्गीय या शहरी लोगों के लिए संभव है। लेकिन आज टेक्नोलॉजी ने यह बाधा तोड़ दी है। मोबाइल डेटा सस्ता हो चुका है, स्मार्टफोन गाँवों तक पहुँच गए हैं, और ओपन-सोर्स कंटेंट की भरमार है। अगर सरकार और समाज थोड़ी सी योजना और समर्थन दे, तो निम्नवर्गीय और ग्रामीण परिवार इस शिक्षा क्रांति में भागीदार बन सकते हैं। शिक्षा का आवासीकरण केवल अमीरों का विकल्प नहीं, गरीबों की ज़रूरत बन सकता है।

घर में शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं रहती। बच्चा जब देखता है कि माँ बजट बना रही है, या पिता मरम्मत कर रहा है, या बहन ऑनलाइन कुछ डिज़ाइन कर रही है, तो वह स्वयं सीखने लगता है। घर अब वास्तविक जीवन प्रयोगशाला बन जाता है, जहाँ सीखना केवल पढ़ाई नहीं, जीवन जीने की तैयारी बन जाती है। वह बागवानी करना, खाना बनाना, डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल, घर की साफ-सफाई, और रिश्तों का सम्मान करना सीखता है, जो उसे केवल पढ़ा-लिखा इंसान नहीं, जिम्मेदार नागरिक बनाता है।

इस मॉडल में पाठ्यक्रम भी वैयक्तिक और लचीला होता है। हर बच्चे के लिए पर्सनल लर्निंग ट्रैक संभव है, जहाँ उसकी रुचियों, जरूरतों और गति के अनुसार विषय तय किए जा सकते हैं। जो बच्चा विज्ञान में रुचि रखता है, वह उम्र से पहले कोडिंग या एआई सीख सकता है; जो इतिहास में रुचि रखता है, वह पुरातत्व या संस्कृति पर शोध कर सकता है। बच्चा केवल 'कक्षा 5 का विद्यार्थी' नहीं रहेगा, बल्कि 'सीखने वाला मनुष्य' बन जाएगा।

शिक्षा का यह आवासीकरण गहरे सामाजिक परिवर्तन की भी भूमिका निभा सकता है। जब परिवार शिक्षण प्रक्रिया में शामिल होता है, तो वह स्वयं भी शिक्षित होता है। माँ-बाप को फिर से पढ़ने की जरूरत पड़ती है, दादा-दादी के अनुभवों को मान्यता मिलती है, और पूरा घर सीखने वाला समुदाय बन जाता है। यह बदलाव केवल बच्चों को नहीं, पूरे परिवार को बेहतर बनाता है।

यह मॉडल बच्चों को समाज से काटता नहीं, बल्कि उन्हें ज़मीनी हकीकतों से जोड़ता है। जब बच्चा देखता है कि उसकी माँ पढ़ाई में उसकी मदद कर रही है, लेकिन साथ ही खाना भी बना रही है, तो वह श्रम का सम्मान करना सीखता है। वह घर को स्कूल के हिस्से के रूप में देखता है और शिक्षा को जीवन से अलग नहीं करता। यह भाव, यह समग्रता पारंपरिक शिक्षा प्रणाली में नहीं पाई जाती।

यह भी सच है कि इस मॉडल में चुनौतियाँ हैं। हर घर में समय नहीं है, हर अभिभावक के पास विषय विशेषज्ञता नहीं है, और सभी को मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है। लेकिन यही वह जगह है जहाँ कम्युनिटी सपोर्ट सिस्टम काम आ सकता है। यदि 10-20 घर मिलकर एक लर्निंग क्लस्टर बनाएँ, तो एक माँ मैथ्स पढ़ा सकती है, दूसरी साइंस, कोई तीसरा म्यूज़िक। इससे ज्ञान का सामाजिक पुनर्वितरण भी होगा। डिजिटल शिक्षक, स्थानीय मेंटर, और सरकारी-सामाजिक साझेदारी इसे और भी व्यावहारिक बना सकती है।

शिक्षा के आवासीकरण की प्रक्रिया केवल तकनीक आधारित नहीं है, यह दार्शनिक बदलाव भी है। यह हमें यह याद दिलाता है कि सीखना जीवन भर की प्रक्रिया है, न कि संस्था-निर्भर प्रक्रिया। यह बच्चे को प्रतिस्पर्धी नहीं, जिज्ञासु, जिम्मेदार और सहृदय इंसान बनने की राह पर ले जाता है।

भविष्य के घर केवल रहने की जगह नहीं होंगे, बल्कि वे जीवन के हर पहलू को समाहित करने वाले समग्र आवास बनेंगे। जैसे आज हर घर में ड्राइंग रूम, बेडरूम, बाथरूम और किचन अनिवार्य माने जाते हैं, वैसे ही आने वाले समय में एजुकेशन रूम या अध्ययन-कक्ष भी आवश्यक घटक होगा। शिक्षा का विद्यालयों से हटकर घरों की ओर लौटना केवल तकनीकी विकास की मांग नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना के पुनर्गठन की प्रक्रिया है। जब पढ़ाई ऑनलाइन, लचीली और स्वयं-निर्देशित होती जा रही है, तब ऐसा समर्पित स्थान, जो ध्यान, एकाग्रता और अध्ययन की गरिमा को बनाए रख सके, घर के आंतरिक नक्शे का स्थायी हिस्सा होना चाहिए। यह कक्ष केवल बच्चों के लिए नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए होगा जो सीखना चाहता है—किसी उम्र या पेशे की सीमाओं से परे।

जब शिक्षा के केंद्र फिर से घर बनेंगे, तो हम न केवल संस्थाओं पर बोझ कम करेंगे, बल्कि समाज को ज्यादा लचीला, आत्मनिर्भर और मानवीय भी बनाएंगे। यह बदलाव धीरे-धीरे आएगा, लेकिन इसकी बुनियाद आज ही पड़नी चाहिए। हमें नये स्कूल खोलने से ज़्यादा ज़रूरत है, पुराने घरों को फिर से सीखने की जगह बनाने की। बदलाव कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि ऐतिहासिक भौतिकवादी प्रक्रिया है, जो समाज के भौतिक ढांचे, उत्पादन के साधनों और संबंधों में होने वाले परिवर्तनों से उत्पन्न होती है। यह प्रक्रिया समय की गति के साथ स्वयं को रचती है और पुराने ढाँचों को तोड़ती चली जाती है। इसमें किसी सरकार की मनमानी या समाज की सामूहिक इच्छा भी स्थायी बाधा नहीं बन सकती, क्योंकि ये परिवर्तन उस ज़मीन से जन्म लेते हैं जहां लोग अपने जीवन के साधनों को रोज़मर्रा की ज़रूरतों के आधार पर नया रूप देते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि चाहे राजशाही रही हो, धर्म का प्रभुत्व रहा हो या आधुनिक राष्ट्र-राज्य; कोई भी व्यवस्था इन बदलावों को रोक नहीं पाई। ये बदलाव धीरे-धीरे, मगर निर्णायक रूप से सामाजिक चेतना, संस्थानों और जीवन की संरचना को बदल डालते हैं।

@मनोज अभिज्ञान

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