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शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों है?

कल्पना कीजिए, ऐसा समाज जहाँ सब कुछ ठीक-ठाक लगता है... बच्चे स्कूल जा रहे हैं, युवा प्रतियोगी परीक्षाओं में लगे हैं, माता-पिता दिन-रात अपने ब...

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कल्पना कीजिए, ऐसा समाज जहाँ सब कुछ ठीक-ठाक लगता है... बच्चे स्कूल जा रहे हैं, युवा प्रतियोगी परीक्षाओं में लगे हैं, माता-पिता दिन-रात अपने बच्चों के भविष्य की चिंता में डूबे हैं। बाहर से देखें तो लगता है, यह शिक्षा समाज को आगे ले जा रही है। मगर जैसे ही आप सतह को कुरेदते हैं, बहुत गहरा धोखा दिखाई देता है... जिसे ग्राम्शी ने ‘वैचारिक प्रभुत्व’ अर्थात् Ideological Hegemony कहा है।

इसमें Hegemony का मतलब होता है... सहमति के ज़रिए सत्ता प्राप्त करना, न कि ज़बरदस्ती से और Ideological का अर्थ है... विचारधारा से जुड़ा हुआ, यानी सोच, विश्वास, मूल्य, और सामान्य ज्ञान जैसा जो हमें स्वाभाविक लगता है। Ideological Hegemony का मतलब है... ऐसी वैचारिक पकड़ जिसमें शासक वर्ग अपनी सोच को पूरी जनता की सोच बना देता है, जिससे शोषित वर्ग भी खुद के शोषण को सही मानने लगता है।

यह प्रभुत्व कोई ज़बरदस्ती नहीं करता। यह चुपचाप, मुस्कुराते हुए हमारे विचारों में घुसता है। यह हमें यह यक़ीन दिलाता है कि समाज में जो भी ऊँच-नीच है, वह हमारी मेरिट पर आधारित है। अमीर इसलिए अमीर है क्योंकि वह होशियार था। गरीब इसलिए गरीब है क्योंकि वह आलसी था। एक बच्चा अगर डॉक्टर बन गया, तो वह मेधावी था। दूसरा अगर मज़दूर रह गया, तो वह अयोग्य था। इस तरह धीरे-धीरे, समाज के सारे असमानता के कारण निजी विफलताओं में बदल जाते हैं।

इसी झूठ को सच्चाई की तरह पढ़ाया जाता है। पाठ्यक्रमों में राजा-महाराजाओं की शौर्य गाथाएँ होती हैं, मगर किसान-कामगार का शोषण कभी विषय नहीं बनता। हमें बताया जाता है कि हर कोई ऊपर उठ सकता है अगर वह मेहनत करे, लेकिन कोई यह नहीं बताता कि कुछ लोग तो नीचे से शुरू ही नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें नीचे जन्म लेने की सज़ा मिली है। जाति, वर्ग, लिंग, क्षेत्र, भाषा—ये सारी बाधाएँ छिपा दी जाती हैं, और सिर्फ एक बात चमकाई जाती है... तुम योग्य नहीं थे।

इससे क्या होता है? एक ग़रीब बच्चा जब परीक्षा में फेल होता है, तो वह यह नहीं कहता कि मेरे पास संसाधन नहीं थे। वह कहता है... मैं ही बेकार हूँ। और यह आत्मग्लानि ही इस शिक्षा की सबसे खतरनाक देन होती है। वह व्यक्ति की चेतना को तोड़ देती है। उसे सत्ता के खिलाफ खड़ा नहीं करती, बल्कि उसे उसी सत्ता के सामने झुका देती है।

ग्राम्शी कहते हैं कि यह प्रक्रिया इतनी सामान्य बना दी जाती है कि लोगों को यह असामान्य लगना ही बंद हो जाता है। इस व्यवस्था में स्कूल और कॉलेज इसलिए नहीं बनते कि लोग सच जानें, बल्कि इसलिए बनते हैं कि लोग सत्ता की व्याख्या को सच मानने लगें। यही है वैचारिक प्रभुत्व। यह पुलिस की तरह नहीं डराता, यह माँ की तरह पुचकारता है। मगर उसकी घातक चोट कहीं गहरी होती है।

चूँकि यह शिक्षा बहुत शांति से अपना काम करती है, इसलिए इसका विरोध करना भी कठिन हो जाता है। लोग कहेंगे—तुम पढ़ाई के खिलाफ हो क्या? …तुम तो मेहनत को भी गाली दे रहे हो! जबकि सवाल मेहनत का नहीं, मौके की बराबरी का है। सवाल यह है कि क्या हम सबको उसी रेस में दौड़ाया जा रहा है, या किसी को पहले से रस्सियों में बाँधकर खड़ा किया गया है?

इस धोखे को तोड़ना है तो शिक्षा को बदलना होगा। ऐसी शिक्षा चाहिए जो सवाल करना सिखाए। जो इतिहास के असली चेहरे को दिखाए। जो बच्चों को केवल नौकरी के लिए नहीं, बल्कि दुनिया को समझने और बदलने के लिए तैयार करे। ग्राम्शी कहते हैं कि यही विरोधी चेतना (Counter-Hegemony) है। यह शिक्षा हमें यह नहीं कहती कि खुद को बदलो, यह कहती है... समाज को बदलो।

और जब यह समझ हमारे भीतर घर करेगी, तब शिक्षा केवल ज्ञान देने वाली चीज़ नहीं रहेगी। वह संघर्ष की मशाल बन जाएगी—और यही शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़ी क्रांति होगी।

@मनोज अभिज्ञान

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