क्या यहूदी सच में जीनियस होते हैं? - यह सवाल जितना साधारण लगता है, उतना ही जटिल और खतरनाक भी हो सकता है, क्योंकि यह एक पूरे समुदाय के बारे म...
क्या यहूदी सच में जीनियस होते हैं? - यह सवाल जितना साधारण लगता है, उतना ही जटिल और खतरनाक भी हो सकता है, क्योंकि यह एक पूरे समुदाय के बारे में सामान्यीकरण करने का जोखिम उठाता है। किसी भी समुदाय को जीनियस, आलसी, धोखेबाज़ या श्रेष्ठ कह देना वैज्ञानिक नहीं होता, बल्कि अक्सर सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों या राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित होता है।
मध्यकालीन यूरोप में यहूदियों को भूमि स्वामित्व से वंचित किया गया। उन्हें किसान बनने, जमींदार बनने, यहाँ तक कि किसी भू-क्षेत्र पर स्थायी रूप से टिक जाने का अधिकार नहीं दिया गया। वे सिर्फ किरायेदार हो सकते थे, वह भी अस्थायी और संदेहास्पद। उन्हें नागरिकता नहीं मिलती थी, उनके जीवन पर चर्च और राज्य की संयुक्त निगरानी थी, और जब भी समाज में कोई संकट आता — महामारी, आर्थिक संकट, युद्ध या अकाल — सबसे पहले उन पर संदेह किया जाता, और अक्सर मार डाला जाता। लेकिन ऐसा क्यों?
इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए हमें धर्म, सत्ता और अर्थशास्त्र के संबंधों को ऐतिहासिक भौतिकता में समझना होगा — विचारों के नहीं, वस्तुगत सामाजिक संरचनाओं के स्तर पर। मध्यकालीन यूरोप की सामाजिक संरचना सामंती थी, जिसमें भूमि ही उत्पादन का प्रमुख साधन थी। जिस पर भूमि थी, वही सत्ता में था। और जो भूमि से वंचित था, वह या तो दास था या भिक्षुक। यहूदियों को भूमि नहीं दी गई — इसलिए नहीं कि भूमि कम थी, बल्कि इसलिए कि सत्ता-संचालकों को यह तय था कि इस अलग कौम को समाज की उत्पादन-शृंखला में सामंती शक्तियों के साथ जोड़ना खतरनाक होगा।
यहूदी अपनी धार्मिक, भाषाई, और सांस्कृतिक विशिष्टता के कारण बहुसंख्यक ईसाई समाज से भिन्न दिखते थे। उनका वेश, उनका भोजन, उनका विश्राम-दिवस (शब्बात), और उनकी भाषाएँ — उन्हें हमेशा अंदर रहकर भी बाहर रहने वाला बनाती थीं। सामंती शासकों और चर्च को ऐसी किसी भी पहचान से खतरा था जो केंद्रीकृत ईसाई सत्ता की एकरूपता को चुनौती देती हो। इसलिए यहूदियों को गैर-स्थायी, बिना ज़मीन वाले, बिना पहचान वाले बनाकर रखा गया। उन्हें भूमि के स्वामित्व से काट दिया गया क्योंकि भूमि उन्हें सामंती संरचना में स्थायित्व और शक्ति दे सकती थी।
यह महज़ धार्मिक दुर्भावना मात्र नहीं थी, बल्कि धार्मिकता के आवरण में लिपटी राजनीतिक-आर्थिक रणनीति थी। जब चर्च कहता था कि यहूदी यीशु के हत्यारे हैं, तो वह सिर्फ धार्मिक भावना को नहीं भड़काता था, बल्कि वह उस वर्ग के खिलाफ जनमत बनाता था जिसे वह उत्पादन की शक्ति में हिस्सेदार नहीं बनने देना चाहता था। लेकिन उत्पादन से जबरन बेदखली का परिणाम यह हुआ कि यहूदी वर्ग ने उत्पादन से इतर क्षेत्र चुना — व्यापार, उधार, लिपिकीय कार्य, चिकित्सा, शिक्षा, खगोल शास्त्र, अनुवाद आदि। वह वर्ग जो खेत नहीं जोत सकता था, उसने दिमाग जोतना शुरू किया। क्योंकि वह वर्ग भूमि से वंचित था, उसने ज्ञान को अपनी भूमि बना लिया। जहाँ दूसरों की पूंजी मिट्टी थी, वहाँ यहूदी की पूंजी उसकी तर्क-शक्ति, उसकी स्मृति और उसकी विचार-प्रक्रिया बनी।
यह कोई दिव्य वरदान नहीं था। यह ऐतिहासिक आवश्यकता की उपज थी — जब उत्पादन के एक क्षेत्र से मनुष्य को जबरन बाहर किया जाता है, तब वह दूसरे क्षेत्र में प्रवेश करता है, और यदि वह उसमें दीर्घकालीन रूप से स्थित होता है, तो उस क्षेत्र की प्रकृति उसके मानसिक गठन को भी आकार देने लगती है।
इसी ऐतिहासिक प्रक्रिया में यहूदी समुदाय ने टोरा और तलमूद जैसे ग्रंथों को न सिर्फ धार्मिक ग्रंथ की तरह पढ़ा, बल्कि बौद्धिक प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया। इन ग्रंथों का अध्ययन हैव्रूता नामक प्रणाली से होता था — दो छात्रों के बीच द्वंद्वात्मक संवाद, तर्क, प्रश्न, प्रति प्रश्न, विरोध, संशय और विश्लेषण। यह कोई भावनात्मक श्रद्धा आधारित शिक्षा नहीं थी — यह संघर्ष से उपजी बौद्धिकता थी। यह पूरी परंपरा मानती थी कि प्रश्न करना ही पूजा है और संदेह ही श्रद्धा का उच्चतम रूप है।
ध्यान दीजिए — यह ज्ञान की वह शैली थी जहाँ सत्य कोई ईश्वरीय आदेश नहीं, बल्कि सतत बहस का उत्पाद था। यही प्रणाली धीरे-धीरे यहूदी समुदाय को वैज्ञानिक सोच, आलोचनात्मक विवेक और सांस्कृतिक सघनता की ओर ले जाती है। यह वह प्रक्रिया थी जिसमें ग्रंथ सिर्फ स्मृति नहीं, बल्कि संघर्ष की जमीन बन गए।
अब कल्पना कीजिए — जहां यूरोप के ईसाई समाजों में शिक्षक परम सत्ता होता था, और छात्र मौन स्वीकृति का प्रतीक — वहीं यहूदियों के बीच छात्र-छात्र का टकराव ही शिक्षा था। यही वजह है कि यहूदियों के बीच बौद्धिक केवल गुण नहीं, बल्कि अस्तित्व की अनिवार्यता बन गई।
राजा और चर्च ने जिसे सज़ा समझा, वह यहूदी वर्ग के लिए प्रतिक्रिया की रणनीति बन गई। जब उन्हें राज्य से निष्कासित किया गया, उन्होंने व्यापार में दक्षता पाई। जब नागरिकता से बाहर रखा गया, तो उन्होंने विद्वता को पहचान बनाया। जब ज़मीन छीनी गई, तो उन्होंने किताब को खेती बना लिया।
इसीलिए मध्यकालीन यूरोप का यहूदी समाज स्वयं में ऐतिहासिक विरोधाभास बन गया — जिसे जितना दबाया गया, वह उतना ही तेज़ी से उस दिशा में बढ़ा, जहाँ सत्ता की नज़र नहीं थी, पर जो आने वाले युग की शक्ति बनने वाली थी।
जो भूमि से वंचित हुआ, उसने अपने लिए ज्ञान की भूमि गढ़ी। जिसे उत्पादन से अलग किया गया, वह सार्वभौमिक ज्ञान-शक्ति का उत्पादक बन गया। यही इतिहास का वह नियम है, जो बताता है कि शोषण कभी शून्य नहीं देता — वह या तो विद्रोह देता है, या बौद्धिक विस्फोट।
यहूदियों के साथ जो हुआ, वह न तो कोई ईश्वरीय लीला थी, न कोई नैतिक अपवाद। वह इतिहास के ठोस द्वंद्वात्मक नियमों का उदाहरण था — जब किसी वर्ग को उत्पादन की एक शक्ल से वंचित किया जाता है, तब वह नए रूप में उभरता है — और कभी-कभी उस नए रूप की शक्ति इतनी होती है कि वह पुरानी सत्ता को भी हिला देता है।
मध्यकालीन यूरोप ने यहूदियों को दीवारों में बंद किया, लेकिन उन दीवारों के भीतर पैदा हुए विचारों ने भविष्य की दुनिया की दीवारों को पार कर दिया। यही वह जगह है जहाँ शोषण की राख से बुद्धि की चिंगारी निकलती है — और इतिहास उसे बुझा नहीं पाता, बस देर से पहचानता है।
यहूदी कोई जीनियस नस्ल नहीं हैं। हाँ, यह सच है कि उनके सामाजिक-सांस्कृतिक ढाँचे और ऐतिहासिक अनुभवों ने शिक्षा, तर्क और इनोवेशन को महत्त्व दिया है — और इसी कारण कई यहूदी व्यक्तियों ने असाधारण उपलब्धियाँ हासिल की हैं। लेकिन यह किसी जैविक श्रेष्ठता का नहीं, बल्कि ऐतिहासिक संघर्ष, सांस्कृतिक प्रवृत्ति और सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों का परिणाम है।
कोई भी समुदाय जीनियस नहीं होता — लेकिन हर समुदाय में जीनियस हो सकते हैं।
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