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जब अमिताभ बच्चन अपने डूबते Career के दौर में KBC के साथ वापसी कर रहे थे, तब उन्होंने शुद्ध हिंदी में बोलना शुरू किया था।

Amitabh Bachchan के पुराने इंटरव्यू देखिए, पहले वो वही भाषा बोलते दिखते हैं जिसे भारतीय फिल्म जगत में बोला जाता था। बाद में लोग जिसे उर्दू की जगह "Hindwi" कहने लगे। जब अमिताभ ने शुद्ध हिंदी में बोलना शुरू किया और "Namaskar" को प्राथमिकता दी तो उर्दू ज़बान वालों में बड़ी बेचैनी छाने लगी थी।

मैं यहां अपने आसपास का एक अनुभव साझा कर रहा हूँ-

तब लोग कहते थे कि-"देख रहे हो अमितभवा को, साला कितना तास्सुबी (Communal) होता जा रहा है। साले में कितनी नफ़रत भरती जा रही है, अब वो शुद्ध हिंदी में ही बात करता है। ये साला जान-बूझ कर ऐसा कर रहा है, अंदर से ये आरएसएस का आदमी है!" 

दुनिया भर की उलटी-सीधी बात लोग अमिताभ बच्चन को सिर्फ़ इसलिए बोलते थे क्योंकि उन्होंने उर्दू ज़बान छोड़कर शुद्ध हिंदी भाषा में बात करना शुरू कर दिया था। इनके लिए शुद्ध हिंदी में बात करना, मतलब नफरती होना है। इतनी छोटी-छोटी बातों से हिंदुओं को सांप्रदायिक और नफरती घोषित किया जाता है।

लता मंगेशकर जब पहली बार नौशाद के पास गाने के लिए गईं तो नौशाद ने उन्हें भगा दिया था, ये बोलकर कि तुम्हारी उर्दू का उच्चारण ठीक नहीं है, जाओ पहले उर्दू सीख कर आओ।

तब लता जी ने 3 साल उर्दू सीखी,  उसके बाद गाना शुरू किया। ब्राह्मण परिवार से आई लता जी जिनके पिता और परिवार मंदिरों में भजन गाते थे वो भारत में काम पाने के लिए उर्दू सीख रही थीं। ये सब बहुत अच्छा और धर्मनिरपेक्ष (Secular) माना जाता था।

जबकि उर्दू में लिखे गाने, लता जी अगर Sanskrit में गाती तो भी वो उतने ही मधुर होते। लेकिन अपना आधिपत्य जमाने ले लिए उस समय ऐसा माहौल तैयार किया गया था, कि उर्दू में गाना और उर्दू में बोलना ही सबसे अच्छा और बेहतरीन होता है।

क्या अंग्रेज़ी के गानों में मिठास नहीं होती है? क्या फ्रेंच शायरी में भावनाएं नहीं होती हैं? तो फिर यहां ऐसा माहौल क्यों बनाया गया कि हिंदी में वो मिठास नहीं है, जो उर्दू में है? नहीं है.. क्योंकि नास्तिक होकर भी जावेद अख़्तर आपको मुगलों की बनाई भाषा की मिठास समझाएंगे और हिंदी को कमतर बताएंगे।

पाकिस्तानियों ने पाकिस्तान बनाते ही अपनी राष्ट्र भाषा उर्दू घोषित की और ज्यादातर जगहों के हिंदू नामों को बदलकर उर्दू कर दिया।

भारत के हिंदू उस दौर से गुज़रे हैं। उनकी अपनी भाषा से लेकर सब कुछ उनसे छीन लिया गया और उन्होंने अगर कभी भी अपनी भाषा और संस्कृति को ही अपनाना चाहा तो उन्हें सांप्रदायिक, नीच, जाहिल और बेवकूफ कहकर संबोधित किया गया।

ये मामला इतना आगे बढ़ गया था कि हिंदू स्वयं को हीन दृष्टि से देखने लगा था। वह हिंदी बोलने में शर्माने लगा और ये प्रयास करने लगा कि उसकी भाषा में अधिक से अधिक उर्दू के शब्द इस्तेमाल हों ताकि लोग उसे समझदार और काबिल समझें।

ये हीनता बड़ी गहरी है क्योंकि हिंदू 'जय श्री राम' चिल्ला के कहता है तो वो सांप्रदायिक हो जाता है और अस्सलाम वालेकुम चिल्ला के कहने वाला, दूसरों पर सलामती भेजने वाला माना जाता है।

इसलिए जो भी आजकल ये कहे कि हमें तो राम-राम या जय सिया राम कहने वाले हिंदू पसंद थे। वो गंगा-जमुनी तहज़ीब वाले हिंदू पसंद थे तो समझ जाइए कि वो व्यक्ति हिंदुओं को "वेजिटेबल" की तरह देखना चाहता है।

ये यही चाहता है कि हिंदू हिंदी छोड़कर उर्दू बोले, ताकि वर्चस्व, दबदबा और रियासत कायम रहे। ये वो लोग हैं जो पाकिस्तान नहीं गए मगर यहां अपना पाकिस्तानी वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं।

कौन से शब्द फारसी भाषा से है?

जब आप आदमी, मकान, खाना, बुखार, चाय, जिंदगी, दिल, परदा, शुक्रिया जैसे शब्द बोलते हैं तो दरअसल फ़ारसी बोल रहे होते हैं।

कौन से शब्द अरबी भाषा से है?

जब आप कानून, किताब, ख़बर, अख़बार, कुर्सी, खैरियत जैसे शब्द बोलते हैं तब दरअसल अरबी बोल रहे होते हैं।

कौन से शब्द तुर्की भाषा से है?

जब आप आईना, अदालत, बाबा, बाहर, बराबर, बाल्टी, दोस्त, दुश्मन, दुनिया, हवा, हाज़िर, हटा, हुकूमत, हिसाब, इंसान, इलाज, जवाब, कातिल, ख़ून, मौसम, मुसाफ़िर, नहर, राहत, सुबह, तकलीफ़, वसीयत, यानि, ज़हर, ज़मीन बोलते हैं तो दरअसल तुर्की भाषा के shabdबोल रहे होते हैं।

ऐसे बहुत सारे शब्द फ़ारसी, अरबी और तुर्की के जस के तस उर्दू में इस्तेमाल किए गए मगर संस्कृत के जो शब्द उर्दू में इस्तेमाल किए गए उन्हें पूरी तरह से बदल कर इस्तेमाल किया गया।

उर्दू बनाने वालों को कौन से शब्द स्वीकार नहीं थे?

जैसे रात्रि से रात बना लिया, सप्ताह से हफ्ता, सूर्य से सूरज, चंद्रमा से चांद, हस्थ से हाथ, कर्म से काम, कागा से कव्वा, लोका से लोग, दुग्ध से दूध, प्रेम से प्यार, उज्ज्वल से उजाला, कर्पूर से काफूर इत्यादि इत्यादि। ये बताता है कि उर्दू बनाने वालों में किस भाषा को लेकर स्वीकार्यता थी और किसे लेकर नहीं।

मुसलमान कभी भी आपको कपूर या कर्पूर बोलता नहीं मिलेगा, वो काफूर ही कहेगा। वो प्रेम नहीं बोलेगा वो प्यार ही कहेगा। लेकिन दलील देगा कि हम तो उर्दू में संस्कृत इस्तेमाल करते हैं।

वो संस्कृत को उर्दू में बोलेगा, मगर सीधे संस्कृत या शुद्ध हिंदी नहीं बोलेगा। मगर हिंदू आपको हमेशा कपूर बोलता मिलेगा। एक ही जगह पैदा हुए दो लोग एक ही वस्तु को दो नामों से बुलाते हैं। एक इस नाम को वैसे बोलता है जैसे मुग़ल बोलते थे और एक उसके मूल रूप या उसके अपभ्रंश को ही बोलता है।

ये उस तरह की बात नहीं है जैसे भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में एक वस्तु के कई नाम होते हैं।

ध्यान रखिए, यहां धार्मिक आधार पर विभाजित भाषा की बात हो रही है। भारत में क्षेत्रीय भाषाओं में तुर्की, फ़ारसी और अरबी के शब्द नहीं बोले जाते है। क्षेत्रीय भाषाओं के साथ आप अरबों, तुर्कियों, ईरानियों और फारसियों की संस्कृति और धर्म को अपने मन और मस्तक में एंट्री नहीं देते हैं।

यहां संस्कृत मजबूरी में इस्तेमाल की गई लेकिन पूरी चालाकी के साथ बदल कर। जो ये कहता है कि संस्कृत के बहुत सारे शब्द उर्दू में इस्तेमाल किए जाते हैं वो आपको ये नहीं बताता कि उन्हें "पूरी तरह से बदल कर" इस्तेमाल किया जाता है।

क्यों मुगलों को एक तीसरी भाषा ही डेवलप करनी पड़ी हिंदुस्तानियों से बात करने के लिए? क्यों नहीं उन्होंने यहां बोली जाने वाली "खड़ी बोली" को जस का तस अपनाया? क्यों उर्दू की लिपि को फ़ारसी और अरबी की तरह लिखा गया? देवनागरी की तरह क्यों नहीं लिखा गया?

क्योंकि, यहां की बोली "काफिरों" की बोली थी। काफिरों की आइडेंटिटी को ख़त्म करने के लिए उन्हें एक नई भाषा पकड़ा दी गई।

मुग़ल अच्छी तरह से जानते थे कि किसी कौम की आइडेंटिटी कैसे ख़त्म की जाती है। मुगलों ने उन्हें समझाया कि उनके द्वारा बनाई गई यह नई भाषा हिंदुस्तानियों की मूल भाषा से कहीं बेहतर और उन्नत है। यह लोग आज भी बड़े-बड़े मंच से वही पुराना राग आलाप रहें हैं।

अंग्रेजों ने तीसरी भाषा क्यों नहीं बनाई?

खुद सोचिए, लगभग सौ साल राज करने वाले अंग्रेजों ने यहां के लोगों से बात करने के लिए कोई तीसरी भाषा क्यों नहीं बनाई? क्योंकि अंग्रेज़ों को "काफिरों" की भाषा से कोई दिक्कत नहीं थी।  अंग्रेजों के लिए भारतीय "मूर्ति पूजक" होने की वजह से दोयम दर्जे के नहीं थे, किन्तु मुगलों के लिए थे!

मैं Urdu को बस वैसे ही देखता हूं जैसे Sufism को। कहने के लिए सूफी मत, हिंदू दर्शन के आध्यात्म की कार्बन कॉपी है। जबकि वो इस्लाम में बैक डोर से एंट्री का एक साधन है। मुग़ल जिन्हें सीधे मुसलमान नहीं बना पाए उन्हें सूफी पंथ पकड़ा कर चले गए। आज वो तुर्कियों और फारसियों की मज़ारों पर माथा टेक कर कव्वाली गा रहे हैं...

मैं स्वयं उर्दू/हिंदी भाषी हूं! एक भाषा के तौर पर मुझे उर्दू उतनी ही प्रिय है जितनी कोई अन्य भाषा। मैं यहां उर्दू के द्वारा वर्चस्व स्थापित करने वालों की मानसिकता की बात कर रहा हूं। उर्दू तो बस आपके लिए एक उदाहरण मात्र है। दरअसल ये सब बहुत बड़ा भ्रमजाल (Psychological games) है। लेकिन अब आप घबराइए मत! भारत का नया दौर अब शुरू हो चुका है, ये सब धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा।